नौला फाउंडेशन ने मनाया विश्व पर्यावरण दिवस

by Ganesh_Kandpal

June 5, 2021, 3:18 p.m. [ 426 | 0 | 0 ]
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गणेश कान्डपाल नैनीताल :

विश्व पर्यावरण दिवस समस्त विश्व में बड़े धूमधाम से मनाया जा रहा हैं। जल जमीन जमीन के सरंक्षण संवर्धन को समर्पित समुदाय आधारित संस्था नौला फाउंडेशन ने भी पुरे उत्तराखंड राज्य के विभिन्न हिस्सों में सामाजिक दूरी का पालन करते हुए विश्व पर्यावरण दिवस मनाया और विशेष प्रजाति के मिश्रित पेड़ो का वृक्षारोपण किया। कार्यक्रम की अध्यक्षता नौला फाउंडेशन सरंक्षक प्रख्यात पुरातत्वविद व् चित्रकार पद्मश्री यशोधर मठपाल, मुख्य अतिथि भीमताल नगर पंचायत अध्यक्ष देवेंद्र चनौतिया, डॉ सुरेश मठपाल, गोपाल दत्त पलड़िया, समाजसेवी कमलेश जोशी, मुकेश पलड़िया, भुवन चंद्र आदि ने मिलकर पर्यावरण दिवस मिला और वृक्षारोपण किया। फाउंडेशन तीन साल से समस्त उत्तराखण्ड में जल स्रोतों को परस्पर सामाजिक जन सहभागिता से बचने में दिलोजान से लगा हुआ हैं। निदेशक किशन भट्ट का कहना हैं की जनता समुदायों को आगे आना होगा, परिणाम दीर्घकालीन होंगे पर बेहतर होंगे। पद्मश्री यशोधर मठपाल ने बताया की कभी पहाड़ की पेयजल स्रोत के अलावा परंपरागत संस्कृति व संस्कार की जगह ये प्राचीन नौले धारे का उत्तराखण्ड में संसाधन उपयोग और संरक्षण में धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक संवेदनशीलता इत्यादि का पूरा ध्यान रखा जाता रहा है। ये धारे-नौले सदैव ही सामूहिकता, सामंजस्यता, सद्भावना और परस्पर सम्मान के वाहक रहे हैं और साथ ही, ग्राम-समाज की जीवनरेखा ये धारे, पंदेरे, मगरे और नौले प्राकृतिक ही रहे हैं। अर्थात, जहाँ प्राकृतिक रूप से पानी था, वहीं इनका निर्माण किया गया। पर इनका रिचार्ज जोन हमेशा प्राकृतिक ही होता हैं जो सदियों से सामुदायिक जल संचय और उसके संरक्षण और संवर्धन हमेशा प्राकृतिक ही होता था और पहाड़ो की ढालों में बने हुए सीढ़ीदार खेत ही प्राकृतिक चाल खाल का काम करते थे। डॉ सुरेश ने बताया कि उत्तराखंड में जल मंदिरो यानि नौलो का इतिहास पांडवो से जोड़कर देखा जाता हैं जिनके वनवास व अज्ञातवास के समय बिताये गए क्षेत्रों में पीने के लिए जल स्रोतों के पानी को एकत्र करके यदि जल की मात्रा अर्थात उसका प्रवाह नियमित और ठीक-ठाक मात्रा में होता था तो जल को सूर्य के ताप से बचाने के लिए उन्हें ग्राम-समाज उसे धारे-पंदेरे या मगरे का रूप देता था और यदि पानी की मात्रा कम होती थी तो सूर्य की किरणों से बचाकर उसे नौले का रूप दिया जाता था । इस अभ्यास से पानी के वाष्पीकरण को रोकने में मदद मिली। नौला और धारा के अलावा, पहाड़ों की ढलानों पर निर्मित छोटे-छोटे कृत्रिम तालाब और खल भी कई स्थानों पर नियमित रूप से बनाए जाते थे। ये तालाब न केवल वर्षा जल संचयन के पारंपरिक तरीके थे, जो भूजल स्तर को बनाए रखने में मदद करते थे, बल्कि जंगलों में घरेलू और जंगली जानवरों को पानी भी प्रदान करते थे।
कालांतर में सरकारी योजनाओं के माध्यम से भूमिगत जल का दोहन कर, जल स्रोतों को बाधित कर या नदियों के प्रवाह को बांधों से रोक कर बड़ी बड़ी टंकियों में एकत्र कर घर घर तक पहुँचाने का काम शुरू हुआ। जरूरत के मुताबिक पानी जब घर पर ही उपलब्ध होने लगा तो नौलों की उपेक्षा होने लगी और हमारे पुरखों की धरोहर क्षीण-शीर्ण होकर विलुप्ति के कगार पर पहुँच गई । *नौले* नहीं, हमारे जीवन मूल्यों को पोषित करती संस्कृति ही खत्म हो जाएगी, यदि हम समय से न जागे।
भूमिगत जल का निरन्तर ह्रास हो रहा है। जहाँ तालाब, पोखर, सिमार, गजार थे वहाँ कंक्रीट की अट्टालिकाएं खडी़ हो गईं। सीमेंट व डामर की सड़कें बन गईं।जंगल उजड़ गए। वर्षा जल को अवशोषित कर धरती के गर्भ में ले जाने वाली जमीन दिन पर दिन कम होने लगी है।समय के साथ जल की प्रति व्यक्ति खपत बढ़ती जा रही है। भूमिगत जल के अत्यधिक दोहन का कृषि पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है।
आज आवश्यकता है लुप्तप्राय परंपरागत जल स्रोतों को पुनर्जीवित करने की और उस तकनीक को विकसित करने की, जिसे हमारे पूर्वजों ने सदियों पहले अपना कर प्रकृति और संस्कृति को पोषित किया।


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